जिसकी ना कोई शकल है, फिर भी कितने चेहरे लिए घूमती है। आवाज़ नहीं है, पर शोर बहुत करती है। मंज़िल चाहे अलग हो, पर रास्ता एक चुनती है। साथ होकर भी, अलग-अलग चलती है। नाम नहीं है, क्योंकि पहचान नहीं है। भाव अलग हैं, पर सब एक-से दिखते हैं। अलग हैं, पर एक-सा सोचते हैं। घर से निकलते हैं, कहीं पहुँचने को, फिर क्यों कहीं पहुँच नहीं पाते हैं? अगले दिन देखो तो वही नज़र आते हैं। कुछ चेहरे ग़ायब हैं, पर किसे फ़र्क पड़ता है — किसी के होने-ना-होने से, भीड़ का स्वरूप कहाँ बदलता है। कुछ की उम्र बीत गई चलते-चलते, इस भूल-भुलैया से निकलते-निकलते। ज़िंदा हैं अब, या मृतक खड़े हैं, या सोच के सागर में डूबे पड़े हैं। काश ये होता, काश ये कर लेता, ज़िंदगी शायद कुछ और होती। शनिवार-इतवार की जगह, शायद और भी जी ली होती। कुछ आए अभी, किनारे खड़े हैं। गुज़रते वक़्त के साथ, और अंदर धँस पड़े हैं। बाहर निकलने की राह अब और मुश्किल नज़र आती है। भीड़ सबसे पहले ख़ुद से दूर कर, अपने से ही मिलती है। ये जो सीधी-सी दिखाई देती है, ये एक चक्रव्यूह है — हर कोई भेद न पाया है, जिसने भेदा, अपनी अलग पहचान पाया है।
“हर दिन हम किसी न किसी भीड़ का हिस्सा बनते हैं — रास्ते पर, दफ़्तर में, ट्रेनों में, या अपने ही विचारों में। पर भीड़ का सबसे बड़ा धोखा यही है — वो साथ होने का अहसास देती है, पर भीतर से हम अकेले ही चलते हैं।”